पूरी दुनिया इंसानियत के लिए है और यह किताब भी इंसान और इंसानियत की बात बताती है पर इस किताब को इंसान से दूर कर दिया गया है, अफ़सोस!
कुरान कहता है या तो क्रिमिनल हो जाओ या मुसलमान हो जाओ. जो क्रिमिनल होगा वो कभी मुसलमान नहीं हो सकता और मुस्लमान कभी क्रिमिनल नहीं हो सकता. जो कहने को मुसलमान है और क्रिमिनल है वो सिर्फ और सिर्फ "शैतान" है मुसलमान नहीं.
कहा जाता है क़ुरान हिफ्ज़ कर लो - जबकि होना यह चाहिए की इसके मानी (मतलब) को समझा जाये. जिससे पता चलेगा कि एक इंसान अपनी ज़िन्दगी कैसे जिए.
क़ुरान में क़रीब 6,666 आएतें है जिसमे से करीब 06 नमाज़; 06 रोज़ा और 06 ही हज के बारे में हैं. इसके इलावा सारी की सारी सिर्फ और सिर्फ इंसानियत और इंसानी ज़िन्दगी से वाबस्ता हैं.
पर यह सच्चाई हमारे धर्म के ठेकेदारों द्वारा कभी किसी को सही नहीं बताई जाती है. उपरोक्त नमाज़, रोज़ा एवम् हज के पीछे क्या वजह है नहीं बताये/समझाए जाते है. बस कहा जाता है नमाज़ पढो, रोज़ा रखो, ज़िन्दगी में एक बार हज ज़रूर करो नहीं तो "गुनाह" पाओगे, गुनाह, गुनाह, गुनाह - और हम इस लफ्ज़ "गुनाह" के डर से आगे कुछ पूछते ही नहीं न जानने की कोशिश करते है.
जबकि अगर हम नमाज़, रोज़ा और हज की तफसील को जाने तो यह भी सिर्फ और सिर्फ इंसान को शैतान बनने से रोकने के लिए है. जैसे:
नमाज़: नमाज़ पढने वाला इंसान अपना सर ऊपर वाले के सामने झुकता है और ऐसा करने पर वह अपना तकब्बुर भूल जाता है और अपने को अदना सा पाकर खुद को इंसानियत के करीब महसूस करता है. इंसान का सर झुकाना उसको उसके अकड़ से दूर तो करता ही है साथ साथ ज़िन्दगी जीने का नया नजरिया भी देता है.
रोज़ा: साल में एक बार पूरे महीने (रमज़ान में) रोज़ा रखना लाज़मी है. यह रोज़ा सिर्फ भूखे रहने का नाम नहीं है बल्कि कर उस चीज़ से दूर रहने की अलामत है जो चीजें इंसान को विलासिता की ओर ले जाती है. सहरी से लेकर मग़रिब तक अन्न-जल का ही त्याग नहीं किया जाना होता है बल्कि उन् तमाम चीज़ों से अपने को दूर रखा जाना ज़रूरी है जो अपने को इंसानियत से दूर ले जाती है. ऐसा कर के इंसान अपने को खुदा/इश्वर/भगवान् के क़रीब महसूस करने लगता है और इन्ही चीज़ों के बीच उसे इंसानियत क्या है महसूस होने लगता है तभी आपने भी महसूस किया होगा लोग इस बीच ऊंच-नीच का भेद-भाव भूल कर एक सा व्यवहार करते है.
हज: यह तभी जायज़ है जब आप दुन्यादारी से ऊपर उठ जाएँ, ज़िन्दगी की सारी ज़िम्मेदारी पूरी कर लें और इस बीच सेक्स के बारे में सोचना तक मना है. यह बहुत ज़रूरी है की आप पर न कोई जिम्मदारी न किसी भी तरह का क़र्ज़ हो. साथ ही आपके परिवार का पूरा खर्च आप के हज़ पर जाने से कम न पडे. हज के दौरान किसी प्रकार के झगडे-लडने की भी मनाही है. हज को रस्म के लिए नहीं बल्कि किरदार बदलने के लिए करना ज़रूरी है. अगर यह सारी बाते हो तो यह हज करना आपको ऊपर वाले के करीब ले जाता है और आप को एहसास करता है की अब आप की बाक़ी ज़िन्दगी ऊंच-नीच से ऊपर उठ कर इंसानियत की सेवा करने के लिए है.
इस्लाम और कुरान का सिर्फ और सिर्फ एक ही मिशन है - वो है इंसानियत. यह सिर्फ इंसानियत ही सिखाता है. कुरान अपनी 6,666 आयेतों में से अगर उपरोक्त 18 को अगर हटा दें तो हर जगह सिर्फ और सिर्फ हमसे "समाज का सुधार", "हर एक को इन्साफ", "जहालत को मिटाना", "गरीबी को मिटाना" आदि की ही बात करता है.
इस्लाम मूर्ती पूजा को सहन नहीं करता - सब जानते है पर मूर्ती पूजा करने वालों को अपना अज़ीज़, दोस्त और करीबी मानता है. और कहता है कि अगर नीयत साफ़ है तो दीन-दुनिया का सही फ़र्क साफ़ साफ़ नज़र आ जाता है.
यह सब जानते है की एक मौलवी/पंडित पूछे जाने पर किसी दुसरे धर्म के बारे में बताएगा तो कभी सही नहीं बताएगा. इसी लिए अगर कभी भी किसी दुसरे के धर्म के बारे में जानना हो तो बेहतर है कि उस धर्म की किताब से जाना जाये.
इस्लाम, इंसानियत का पैरोकार धर्म - आज बदनाम है, या ये कहे बदनाम कर दिया गया है - जिसको खरीदे गए लोगों द्वारा इस कगार पर लाया गया है, इसकी वजह अब लोगों को समझ आ रही है|
अब भी देर नहीं हुई अगर हम इस्लाम की सच्चाई को जाने और समझें तथा इस सच्चाई को औरों को भी बताएं...
और भी बहुत सच्चाई है बताने को, पर अभी इतना ही काफी है... अगर आप दोस्तों को पसंद आये तो आगे कुछ और लिखूंगा...
(c) Zafar ki Khabar
कुरान कहता है या तो क्रिमिनल हो जाओ या मुसलमान हो जाओ. जो क्रिमिनल होगा वो कभी मुसलमान नहीं हो सकता और मुस्लमान कभी क्रिमिनल नहीं हो सकता. जो कहने को मुसलमान है और क्रिमिनल है वो सिर्फ और सिर्फ "शैतान" है मुसलमान नहीं.
कहा जाता है क़ुरान हिफ्ज़ कर लो - जबकि होना यह चाहिए की इसके मानी (मतलब) को समझा जाये. जिससे पता चलेगा कि एक इंसान अपनी ज़िन्दगी कैसे जिए.
क़ुरान में क़रीब 6,666 आएतें है जिसमे से करीब 06 नमाज़; 06 रोज़ा और 06 ही हज के बारे में हैं. इसके इलावा सारी की सारी सिर्फ और सिर्फ इंसानियत और इंसानी ज़िन्दगी से वाबस्ता हैं.
पर यह सच्चाई हमारे धर्म के ठेकेदारों द्वारा कभी किसी को सही नहीं बताई जाती है. उपरोक्त नमाज़, रोज़ा एवम् हज के पीछे क्या वजह है नहीं बताये/समझाए जाते है. बस कहा जाता है नमाज़ पढो, रोज़ा रखो, ज़िन्दगी में एक बार हज ज़रूर करो नहीं तो "गुनाह" पाओगे, गुनाह, गुनाह, गुनाह - और हम इस लफ्ज़ "गुनाह" के डर से आगे कुछ पूछते ही नहीं न जानने की कोशिश करते है.
जबकि अगर हम नमाज़, रोज़ा और हज की तफसील को जाने तो यह भी सिर्फ और सिर्फ इंसान को शैतान बनने से रोकने के लिए है. जैसे:
नमाज़: नमाज़ पढने वाला इंसान अपना सर ऊपर वाले के सामने झुकता है और ऐसा करने पर वह अपना तकब्बुर भूल जाता है और अपने को अदना सा पाकर खुद को इंसानियत के करीब महसूस करता है. इंसान का सर झुकाना उसको उसके अकड़ से दूर तो करता ही है साथ साथ ज़िन्दगी जीने का नया नजरिया भी देता है.
रोज़ा: साल में एक बार पूरे महीने (रमज़ान में) रोज़ा रखना लाज़मी है. यह रोज़ा सिर्फ भूखे रहने का नाम नहीं है बल्कि कर उस चीज़ से दूर रहने की अलामत है जो चीजें इंसान को विलासिता की ओर ले जाती है. सहरी से लेकर मग़रिब तक अन्न-जल का ही त्याग नहीं किया जाना होता है बल्कि उन् तमाम चीज़ों से अपने को दूर रखा जाना ज़रूरी है जो अपने को इंसानियत से दूर ले जाती है. ऐसा कर के इंसान अपने को खुदा/इश्वर/भगवान् के क़रीब महसूस करने लगता है और इन्ही चीज़ों के बीच उसे इंसानियत क्या है महसूस होने लगता है तभी आपने भी महसूस किया होगा लोग इस बीच ऊंच-नीच का भेद-भाव भूल कर एक सा व्यवहार करते है.
हज: यह तभी जायज़ है जब आप दुन्यादारी से ऊपर उठ जाएँ, ज़िन्दगी की सारी ज़िम्मेदारी पूरी कर लें और इस बीच सेक्स के बारे में सोचना तक मना है. यह बहुत ज़रूरी है की आप पर न कोई जिम्मदारी न किसी भी तरह का क़र्ज़ हो. साथ ही आपके परिवार का पूरा खर्च आप के हज़ पर जाने से कम न पडे. हज के दौरान किसी प्रकार के झगडे-लडने की भी मनाही है. हज को रस्म के लिए नहीं बल्कि किरदार बदलने के लिए करना ज़रूरी है. अगर यह सारी बाते हो तो यह हज करना आपको ऊपर वाले के करीब ले जाता है और आप को एहसास करता है की अब आप की बाक़ी ज़िन्दगी ऊंच-नीच से ऊपर उठ कर इंसानियत की सेवा करने के लिए है.
इस्लाम और कुरान का सिर्फ और सिर्फ एक ही मिशन है - वो है इंसानियत. यह सिर्फ इंसानियत ही सिखाता है. कुरान अपनी 6,666 आयेतों में से अगर उपरोक्त 18 को अगर हटा दें तो हर जगह सिर्फ और सिर्फ हमसे "समाज का सुधार", "हर एक को इन्साफ", "जहालत को मिटाना", "गरीबी को मिटाना" आदि की ही बात करता है.
इस्लाम मूर्ती पूजा को सहन नहीं करता - सब जानते है पर मूर्ती पूजा करने वालों को अपना अज़ीज़, दोस्त और करीबी मानता है. और कहता है कि अगर नीयत साफ़ है तो दीन-दुनिया का सही फ़र्क साफ़ साफ़ नज़र आ जाता है.
यह सब जानते है की एक मौलवी/पंडित पूछे जाने पर किसी दुसरे धर्म के बारे में बताएगा तो कभी सही नहीं बताएगा. इसी लिए अगर कभी भी किसी दुसरे के धर्म के बारे में जानना हो तो बेहतर है कि उस धर्म की किताब से जाना जाये.
इस्लाम, इंसानियत का पैरोकार धर्म - आज बदनाम है, या ये कहे बदनाम कर दिया गया है - जिसको खरीदे गए लोगों द्वारा इस कगार पर लाया गया है, इसकी वजह अब लोगों को समझ आ रही है|
अब भी देर नहीं हुई अगर हम इस्लाम की सच्चाई को जाने और समझें तथा इस सच्चाई को औरों को भी बताएं...
और भी बहुत सच्चाई है बताने को, पर अभी इतना ही काफी है... अगर आप दोस्तों को पसंद आये तो आगे कुछ और लिखूंगा...
(c) Zafar ki Khabar
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